Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


गोदान--मुंशी प्रेमचंद

राय साहब इस समय नैनीताल में थे। यह सन्देशा पाकर फूल उठे। यद्यपि वह विवाह के विषय में लड़के पर किसी तरह का दबाव डालना न चाहते थे; पर इसका उन्हें विश्वास था कि वह जो कुछ निश्चय कर लेंगे, उसमें रुद्रपाल को कोई आपत्ति न होगी और राजा सूर्यप्रतापसिंह से नाता हो जाना एक ऐसे सौभाग्य की बात थी कि रुद्रपाल का सहमत न होना ख़याल में भी न आ सकता था। उन्होंने तुरन्त राजा साहब को बात दे दी और उसी वक़्त रुद्रपाल को फ़ोन किया।
रुद्रपाल ने जवाब दिया -- मुझे स्वीकार नहीं। राय साहब को अपने जीवन में न कभी इतनी निराशा हुई थी, न इतना क्रोध आया था। पूछा -- कोई वजह?
'समय आने पर मालूम हो जायगा। '
'मैं अभी जानना चाहता हूँ। '
'मैं नहीं बतलाना चाहता। '
'तुम्हें मेरा हुक्म मानना पड़ेगा। '
'जिस बात को मेरी आत्मा स्वीकार नहीं करती, उसे मैं आपके हुक्म से नहीं मान सकता। '
राय साहब ने बड़ी नम्रता से समझाया -- बेटा, तुम आदर्शवाद के पीछे अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हो। यह सम्बन्ध समाज में तुम्हारा स्थान कितना ऊँचा कर देगा, कुछ तुमने सोचा है? इसे ईश्वर की प्रेरणा समझो। उस कुल की कोई दरिद्र कन्या भी मुझे मिलती, तो मैं अपने भाग्य को सराहता, यह तो राजा सूर्यप्रताप की कन्या है, जो हमारे सिरमौर हैं। मैं उसे रोज़ देखता हूँ। तुमने भी देखा होगा। रूप, गुण, शील, स्वभाव में ऐसी युवती मैंने आज तक नहीं देखी। मैं तो चार दिन का और मेहमान हूँ। तुम्हारे सामने सारा जीवन पड़ा है। मैं तुम्हारे ऊपर दबाव नहीं डालना चाहता। तुम जानते हो, विवाह के विषय में मेरे विचार कितने उदार हैं, लेकिन मेरा यह भी तो धर्म है कि अगर तुम्हें ग़लती करते देखूँ, तो चेतावनी दे दूँ।
रुद्रपाल ने इसका जवाब दिया -- मैं इस विषय में बहुत पहले निश्चय कर चुका हूँ। उसमें अब कोई परिवर्तन नहीं हो सकता।
राय साहब को लड़के की जड़ता पर फिर क्रोध आ गया। गरजकर बोले -- मालूम होता है, तुम्हारा सिर फिर गया है। आकर मुझसे मिलो। विलंव न करना। मैं राजा साहब को ज़बान दे चुका हूँ।
रुद्रपाल ने जवाब दिया -- खेद है, अभी मुझे अवकाश नहीं है।
दूसरे दिन राय साहब ख़ुद आ गये। दोनों अपने-अपने शस्त्रों से सजे हुए तैयार खड़े थे। एक ओर सम्पूर्ण जीवन का मँजा हुआ अनुभव था, समझौतों से भरा हुआ; दूसरी ओर कच्चा आदर्शवाद था, ज़िद्दी, उद्दंड और निर्मम। राय साहब ने सीधे मर्म पर आघात किया -- मैं जानना चाहता हूँ, वह कौन लड़की है?
रुद्रपाल ने अचल भाव से कहा -- अगर आप इतने उत्सुक हैं, तो सुनिए। वह मालती देवी की बहन सरोज है।
राय साहब आहत होकर गिर पड़े -- अच्छा वह!
'आपने तो सरोज को देखा होगा? '
'ख़ूब देखा है। तुमने राजकुमारी को देखा है या नहीं? '
'जी हाँ, ख़ूब देखा है। '
'फिर भी ... '
'मैं रूप को कोई चीज़ नहीं समझता। '
'तुम्हारी अक्ल पर मुझे अफ़सोस आता है। मालती को जानते हो कैसी औरत है? उसकी बहन क्या कुछ और होगी। '
रुद्रपाल ने तेवरी चढ़ाकर कहा -- मैं इस विषय में आपसे और कुछ नहीं कहना चाहता; मगर मेरी शादी होगी, तो सरोज से।
'मेरे जीते जी कभी नहीं हो सकती। '
'तो आपके बाद होगी। '
'अच्छा, तुम्हारे यह इरादे हैं! '

और राय साहब की आँखें सजल हो गयीं। जैसे सारा जीवन उजड़ गया हो। मिनिस्टरी और इलाक़ा और पदवी, सब जैसे बासी फूलों की तरह नीरस, निरानन्द हो गये हों। जीवन की सारी साधना व्यर्थ हो गयी। उनकी स्त्री का जब देहान्त हुआ था, तो उनकी उम्र छत्तीस साल से ज़्यादा न थी। वह विवाह कर सकते थे, और भोगविलास का आनन्द उठा सकते थे। सभी उनसे विवाह करने के लिए आग्रह कर रहे थे; मगर उन्होंने इन बालकों का मुँह देखा और विधुर जीवन की साधना स्वीकार कर ली। इन्हीं लड़कों पर अपने जीवन का सारा भोग-विलास न्योछावर कर दिया। आज तक अपने हृदय का सारा स्नेह इन्हीं लड़कों देते चले आये हैं, और आज यह लड़का इतनी निष्ठुरता से बातें कर रहा है, मानो उनसे कोई नाता नहीं, फिर वह क्यों जायदाद और सम्मान और अधिकार के लिए जान दें। इन्हीं लड़कों ही के लिए तो वह सब कुछ कर रहे थे, जब लड़कों को उनका ज़रा भी लिहाज़ नहीं, तो वह क्यों यह तपस्या करें। उन्हें कौन संसार में बहुत दिन रहना है। उन्हें भी आराम से पड़े रहना आता है। उनके और हज़ारों भाई मूँछों पर ताव देकर जीवन का भोग करते हैं और मस्त घूमते हैं। फिर वह भी क्यों न भोग-विलास में पड़े रहें। उन्हें इस वक़्त याद न रहा कि वह जो तपस्या कर रहे हैं, वह लड़कों के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए; केवल यश के लिए नहीं, बल्कि इसीलिए कि वह कर्मशील हैं और उन्हें जीवित रहने के लिए इसकी ज़रूरत है। वह विलासी और अकर्मण्य बनकर अपनी आत्मा को सन्तुष्ट नहीं रख सकते। उन्हें मालूम नहीं, कि कुछ लोगों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि विलास का अपाहिजपन स्वीकार ही नहीं कर सकते। वे अपने जिगर का ख़ून पीने ही के लिए बने हैं, और मरते दम तक पिये जायँगे। मगर इस चोट की प्रतिक्रिया भी तुरन्त हुई। हम जिनके लिए त्याग करते हैं उनसे किसी बदले की आशा न रखकर भी उनके मन पर शासन करना चाहते हैं, चाहे वह शासन उन्हीं के हित के लिए हो, यद्यपि उस हित को हम इतना अपना लेते हैं कि वह उनका न होकर हमारा हो जाता है। त्याग की मात्रा जितनी ही ज़्यादा होती है, यह शासन-भावना भी उतनी ही प्रबल होती है और जब सहसा हमें विद्रोह का सामना करना पड़ता है, तो हम क्षुब्ध हो उठते हैं, और वह त्याग जैसे प्रतिहिंसा का रूप ले लेता है।

राय साहब को यह ज़िद पड़ गयी कि रुद्रपाल का विवाह सरोज के साथ न होने पाये, चाहे इसके लिए उन्हें पुलिस की मदद क्यों न लेनी पड़े, नीति की हत्या क्यों न करनी पड़े। उन्होंने जैसे तलवार खींचकर कहा -- हाँ, मेरे बाद ही होगी और अभी उसे बहुत दिन हैं।
रुद्रपाल ने जैसे गोली चला दी -- ईश्वर करे, आप अमर हों! सरोज से मेरा विवाह हो चुका।
'झूठ! '
'बिलकुल नहीं, प्रमाण-पत्र मौजूद है। '
राय साहब आहत होकर गिर पड़े। इतनी सतृष्ण हिंसा की आँखों से उन्होंने कभी किसी शत्रु को न देखा था। शत्रु अधिक-से-अधिक उनके स्वार्थ पर आघात कर सकता था, या देह पर या सम्मान पर; पर यह आघात तो उस मर्मस्थल पर था, जहाँ जीवन की सम्पूर्ण प्रेरणा संचित थी। एक आँधी थी जिसने उनका जीवन जड़ से उखाड़ दिया। अब वह सर्वथा अपंग हैं। पुलिस की सारी शक्ति हाथ में रहते हुए अपंग हैं। बल-प्रयोग उनका अन्तिम शस्त्र था। वह शस्त्र उनके हाथ से निकल चुका था। रुद्रपाल बालिग़ है, सरोज भी बालिग़ है। और रुद्रपाल अपनी रियासत का मालिक है। उनका उस पर कोई दबाव नहीं। आह! अगर जानते यह लौंडा यों विद्रोह करेगा, तो इस रियासत के लिए लड़ते ही क्यों? इस मुक़दमेबाज़ी के पीछे दो-ढाई लाख बिगड़ गये। जीवन ही नष्ट हो गया। अब तो उनकी लाज इसी तरह बचेगी कि इस लौंडे की ख़ुशामद करते रहें, उन्होंने ज़रा बाधा दी और इज़्ज़त धूल में मिली। वह जीवन का बलिदान करके भी अब स्वामी नहीं हैं। ओह! सारा जीवन नष्ट हो गया। सारा जीवन! रुद्रपाल चला गया था।
राय साहब ने कार मँगवाई और मेहता से मिलने चले। मेहता अगर चाहें तो मालती को समझा सकते हैं। सरोज भी उनकी अवहेलना न करेगी; अगर दस-बीस हज़ार रुपए बल खाने से भी यह विवाह रुक जाय, तो वह देने को तैयार थे। उन्हें उस स्वार्थ के नशे में यह बिल्कुल ख़्याल न रहा कि वह मेहता के पास ऐसा प्रस्ताव लेकर जा रहे हैं, जिस पर मेहता की हमदर्दी कभी उनके साथ न होगी।
मेहता ने सारा वृत्तान्त सुनकर उन्हें बनाना शुरू किया। गम्भीर मुँह बनाकर बोले -- यह तो आपकी प्रतिष्ठा का सवाल है।
राय साहब भाँप न सके। उछलकर बोले -- जी हाँ, केवल प्रतिष्ठा का। राजा सूर्यप्रतापसिंह को तो आप जानते हैं?
'मैंने उनकी लड़की को भी देखा है। सरोज उसके पाँव की धूल भी नहीं है। '
'मगर इस लौंडे की अक्ल पर पत्थर पड़ गया है। '
'तो मारिये गोली, आपको क्या करना है। वही पछतायेगा। '
'आह! यही तो नहीं देखा जाता मेहताजी? मिलती हुई प्रतिष्ठा नहीं छोड़ी जाती। मैं इस प्रतिष्ठा पर अपनी आधी रियासत क़ुर्बान करने को तैयार हूँ। आप मालती देवी को समझा दें, तो काम बन जाय। इधर से इनकार हो जाय, तो रुद्रपाल सिर पीटकर रह जायगा और यह नशा दस-पाँच दिन में आप उतर जायगा। यह प्रेम-रोग कुछ नहीं, केवल सनक है। '
'लेकिन मालती बिना कुछ रिश्वत लिए मानेगी नहीं। '
'आप जो कुछ कहिए, मैं उसे दूँगा। वह चाहे तो में उसे यहाँ के डफ़रिन हास्पिटल का इनचार्ज बना दूँ। '
'मान लीजिए, वह आपको चाहे तो आप राज़ी होंगे। जब से आपको मिनिस्टरी मिली है, आपको विषय में उसकी राय ज़रूर बदल गयी होगी। '
राय साहब ने मेहता के चेहरे की तरफ़ देखा। उस पर मुस्कराहट की रेखा नज़र आयी। समझ गये। व्यथित स्वर में बोले -- आपको भी मुझसे मज़ाक़ करने का यही अवसर मिला। मैं आपके पास इसलिए आया था कि मुझे यक़ीन था कि आप मेरी हालत पर विचार करेंगे, मुझे उचित राय देंगे। और आप मुझे बनाने लगे। जिसके दाँत नहीं दुखे, वह दाँतों का दर्द क्या जाने।
मेहता ने गम्भीर स्वर से कहा -- क्षमा कीजिएगा, आप ऐसा प्रश्न ही लेकर आये हैं कि उस पर गम्भीर विचार करना मैं हास्यास्पद समझता हूँ। आप अपनी शादी के ज़िम्मेदार हो सकते हैं। लड़के की शादी का दायित्व आप क्यों अपने ऊपर लेते हैं, ख़ास कर जब आपका लड़का बालिग़ है और अपना नफ़ा-नुक़सान समझता है। कम-से-कम मैं तो शादी-जैसे महत्व के मुआमले में प्रतिष्ठा का कोई स्थान नहीं समझता। प्रतिष्ठा धन से होती तो राजा साहब उस नंगे बाबा के सामने घंटों ग़ुलामों की तरह हाथ बाँधे न खड़े रहते। मालूम नहीं कहाँ तक सही है; पर राजा साहब अपने इलाक़े के दारोग़ा तक को सलाम करते हैं; इसे आप प्रतिष्ठा कहते हैं? लखनऊ में आप किसी दूकानदार, किसी अहलकार, किसी राहगीर से पूछिए, उनका नाम सुनकर गालियाँ ही देगा। इसी को आप प्रतिष्ठा कहते हैं? जाकर आराम से बैठिए। सरोज से अच्छी वधू आपको बड़ी मुश्किल से मिलेगी।
राय साहब ने आपत्ति के भाव से कहा -- बहन तो मालती ही की है।
मेहता ने गर्म होकर कहा -- मालती की बहन होना क्या अपमान की बात है? मालती को आपने जाना नहीं, और न जानने की परवाह की। मैंने भी यही समझा था; लेकिन अब मालूम हुआ कि वह आग में पड़कर चमकनेवाली सच्ची धातु है। वह उन वीरों में है जो अवसर पड़ने पर अपने जौहर दिखाते हैं, तलवार घुमाते नहीं चलते। आपको मालूम है खन्ना की आजकल क्या दशा है?
राय साहब ने सहानुभूति के भाव से सिर हिलाकर कहा -- सुन चुका हूँ, और बार-बार इच्छा हुई कि उनसे मिलूँ; लेकिन फ़ुरसत न मिली। उस मिल में आग लगना उनके सर्वनाश का कारण हो गया।
'जी हाँ। अब वह एक तरह से दोस्तों की दया पर अपना निवार्ह कर रहे हैं। उस पर गोविन्दी महीनों से बीमार है। उसने खन्ना पर अपने को बलिदान कर दिया, उस पशु पर जिसने हमेशा उसे जलाया; अब वह मर रही है। और मालती रात की रात उसके सिरहाने बैठी रह जाती है, वही मालती जो किसी राजा रईस से पाँच सौ फ़ीस पाकर भी रात-भर न बैठेगी। खन्ना के छोटे बच्चों को पालने का भार भी मालती पर है। यह मातृत्व उसमें कहाँ सोया हुआ था, मालूम नहीं। मुझे तो मालती का यह स्वरूप देखकर अपने भीतर श्रद्धा का अनुभव होने लगा, हालाँकि आप जानते हैं, मैं घोर जड़वादी हूँ। और भीतर के परिष्कार के साथ उसकी छवि में भी देवत्व की झलक आने लगी है। मानवता इतनी बहुरंगी और इतनी समर्थ है, इसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। आप उनसे मिलना चाहें तो चलिए, इसी बहाने मैं भी चला चलूँगा। '
राय साहब ने स्निग्ध भाव से कहा -- जब आप ही मेरे दर्द को नहीं समझ सके, तो मालती देवी क्या समझेंगी, मुफ़्त में शर्मिन्दगी होगी; मगर आपको पास जाने के लिए किसी बहाने की ज़रूरत क्यों! मैं तो समझता था, आपने उनके ऊपर अपना जादू डाल दिया है।
मेहता ने हसरत भरी मुस्कराहट के साथ जवाब दिया -- वह बात अब स्वप्न हो गयी। अब तो कभी उनके दर्शन भी नहीं होते। उन्हें अब फ़ुरसत भी नहीं रहती। दो-चार बार गया। मगर मुझे मालूम हुआ, मुझसे मिलकर वह कुछ ख़ुश नहीं हुईं, तब से जाते झेंपता हूँ। हाँ, ख़ूब याद आया, आज महिला-व्यायामशाला का जलसा है, आप चलेंगे?
राय साहब ने बेदिली के साथ कहा -- जी नहीं, मुझे फ़ुरसत नहीं है। मुझे तो यह चिन्ता सवार है कि राजा साहब को क्या जवाब दूँगा। मैं उन्हें वचन दे चुका हूँ।
यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए और मन्दगति से द्वार की ओर चले। जिस गुत्थी को सुलझाने आये थे, वह और भी जटिल हो गयी। अन्धकार और भी असूझ हो गया। मेहता ने कार तक आकर उन्हें बिदा किया। राय साहब सीधे अपने बँगले पर आये और दैनिक पत्र उठाया था कि मिस्टर तंखा का कार्ड मिला। तंखा से उन्हें घृणा थी, और उनका मुँह भी न देखना चाहते थे; लेकिन इस वक़्त मन की दुर्बल दशा में उन्हें किसी हमदर्द की तलाश थी, जो और कुछ न कर सके, पर उनके मनोभावों से सहानुभूति तो करे। तुरन्त बुला लिया।
तंखा पाँव दबाते हुए, रोनी सूरत लिये कमरे में दाख़िल हुए और ज़मीन पर झुककर सलाम करते हुए बोले -- मैं तो हुज़ूर के दर्शन करने नैनीताल जा रहा था। सौभाग्य से यहीं दर्शन हो गये! हुज़ूर का मिज़ाज तो अच्छा है।
इसके बाद उन्होंने बड़ी लच्छेदार भाषा में, और अपने पिछले व्यवहार को बिल्कुल भूलकर, राय साहब का यशोगान आरम्भ किया -- ऐसी होम-मेम्बरी कोई क्या करेगा, जिधर देखिये हुज़ूर ही के चर्चे हैं। यह पद हुज़ूर ही को शोभा देता है।
राय साहब मन में सोच रहे थे, यह आदमी भी कितना बड़ा धूर्त है, अपनी ग़रज़ पड़ने पर गधे को दादा कहनेवाला, पहले सिरे का बेवफ़ा और निर्लज्ज; मगर उन्हें उन पर क्रोध न आया, दया आयी। पूछा -- आजकल आप क्या कर रहे हैं? कुछ नहीं हुज़ूर, बेकार बैठा हूँ। इसी उम्मीद से आपकी ख़िदमत में हाज़िर होने जा रहा था कि अपने पुराने खादिमों पर निगाह रहे। आजकल बड़ी मुसीबत में पड़ा हुआ हूँ हुज़ूर। राजा सूर्यप्रतापसिंह को तो हुज़ूर जानते हैं, अपने सामने किसी को नहीं समझते। एक दिन आपकी निन्दा करने लगे। मुझसे न सुना गया। मैंने कहा, बस कीजिए महाराज, राय साहब मेरे स्वामी हैं और मैं उनकी निन्दा नहीं सुन सकता। बस इसी बात पर बिगड़ गये। मैंने भी सलाम किया और घर चला आया। मैंने साफ़ कह दिया, आप कितना ही ठाट-बाट दिखायें; पर राय साहब की जो इज़्ज़त है; वह आपको नसीब नहीं हो सकती। इज़्ज़त ठाट से नहीं होती, लियाक़त से होती है। आप में जो लियाक़त है वह तो दुनिया जानती है।
राय साहब ने अभिनय किया -- आपने तो सीधे घर में आग लगा दी।
तंखा ने अकड़कर कहा -- मैं तो हुज़ूर साफ़ कहता हूँ, किसी को अच्छा लगे या बुरा। जब हुज़ूर के क़दमों को पकड़े हुए हूँ, तो किसी से क्यों डरूँ। हुज़ूर के तो नाम से जलते हैं। जब देखिए हुज़ूर की बदगोई। जब से आप मिनिस्टर हुए हैं, उनकी छाती पर साँप लोट रहा है। मेरी सारी-की-सारी मज़दूरी साफ़ डकार गये। देना तो जानते नहीं हुज़ूर। असामियों पर इतना अत्याचार करते हैं कि कुछ न पूछिए। किसी की आबरू सलामत नहीं। दिन दहाड़े औरतों को ...
कार की आवाज़ आयी और राजा सूर्यप्रतापसिंह उतरे। राय साहब ने कमरे से निकलकर उनका स्वागत किया और इस सम्मान के बोझ से नत होकर बोले -- मैं तो आपकी सेवा में आनेवाला ही था।
यह पहला अवसर था कि राजा सूर्यप्रतापसिंह ने इस घर को अपने चरणों से पवित्र किया। यह सौभाग्य! मिस्टर तंखा भीगी बिल्ली बने बैठे हुए थे। राजा साहब यहाँ! क्या इधर इन दोनों महोदयों में दोस्ती हो गयी है? उन्होंने राय साहब की ईर्ष्याग्नि को उत्तेजित करके अपना हाथ सेंकना चाहा था; मगर नहीं, राजा साहब यहाँ मिलने के लिए आ भले ही गये हों, मगर दिलों में जो जलन है वह तो कुम्हार के आँवे की तरह इस ऊपर की लेप-थोप से बुझनेवाली नहीं। राजा साहब ने सिगार जलाते हुए तंखा की ओर कठोर आँखों से देखकर कहा -- तुमने तो सूरत ही नहीं दिखाई मिस्टर तंखा। मुझसे उस दावत के सारे रुपए वसूल कर लिये और होटलवालों को एक पाई न दी, वह मेरा सिर खा रहे हैं। मैं इसे विश्वास घात समझता हूँ। मैं चाहूँ तो अभी तुम्हें पुलीस में दे सकता हूँ।
यह कहते हुए उन्होंने राय साहब को सम्बोधित करके कहा -- ऐसा बेईमान आदमी मैंने नहीं देखा राय साहब। मैं सत्य कहता हूँ, मैं कभी आपके मुक़ाबले में न खड़ा होता। मगर इसी शैतान ने मुझे बहकाया और मेरे एक लाख रुपए बरबाद कर दिये। बँगला ख़रीद लिया साहब, कार रख ली। एक वेश्या से आशनाई भी कर रखी है। पूरे रईस बन गये और अब दग़ाबाज़ी शुरू की है। रईसों की शान निभाने के लिए रियासत चाहिए। आपकी रियासत अपने दोस्तों की आँखों में धूल झोंकना है।
राय साहब ने तंखा की ओर तिरस्कार की आँखों से देखा। और बोले -- आप चुप क्यों हैं मिस्टर तंखा, कुछ जवाब दीजिए। राजा साहब ने तो आपका सारा मेहनताना दबा लिया। है इसका कोई जवाब आपके पास? अब कृपा करके यहाँ से चले जाइए और ख़बरदार फिर अपनी सूरत न दिखाइएगा। दो भले आदमियों में लड़ाई लगाकर अपना उल्लू सीधा करना बेपूँजी का रोज़गार है; मगर इसका घाटा और नफ़ा दोनों ही जान-जोख़िम है समझ लीजिए।
तंखा ने ऐसा सिर गड़ाया कि फिर न उठाया। धीरे से चले गये। जैसे कोई चोर कुत्ता मालिक के अन्दर आ जाने पर दबकर निकल जाय। जब वह चले गये, तो राजा साहब ने पूछा -- मेरी बुराई करता होगा?
'जी हाँ; मगर मैंने भी ख़ूब बनाया। '
'शैतान है। '
'पूरा। '
'बाप-बेटे में लड़ाई करवा दे, मियाँ-बीबी में लड़ाई करवा दे। इस फ़न में उस्ताद है। ख़ैर, आज बचा को अच्छा सबक़ मिल गया। '
इसके बाद रुद्रपाल के विवाह की बातचीत शुरू हुई। राय साहब के प्राण सूखे जा रहे थे। मानो उन पर कोई निशाना बाँधा जा रहा हो। कहाँ छिप जायँ। कैसे कहें कि रुद्रपाल पर उनका कोई अधिकार नहीं रहा; मगर राजा साहब को परिस्थिति का ज्ञान हो चुका था। राय साहब को अपनी तरफ़ से कुछ न कहना पड़ा। जान बच गयी। उन्होंने पूछा -- आपको इसकी क्योंकर ख़बर हुई?
'अभी-अभी रुद्रपाल ने लड़की के नाम एक पत्र भेजा है जो उसने मुझे दे दिया। '
'आजकल के लड़कों में और तो कोई ख़ूबी नज़र नहीं आती, बस स्वच्छन्दता की सनक सवार है। '
'सनक तो है ही; मगर इसकी दवा मेरे पास है। मैं उस छोकरी को ऐसा ग़ायब कर दूँ कि कहीं पता न लगेगा। दस-पाँच दिन में यह सनक ठंडी हो जायगी। समझाने से कोई नतीजा नहीं। '
राय साहब काँप उठे। उनके मन में भी इस तरह की बात आयी थी; लेकिन उन्होंने उसे आकार न लेने दिया था। संस्कार दोनों व्यक्तियों के एक-से थे। गुफावासी मनुष्य दोनों ही व्यक्तियों में जीवित था। राय साहब ने उसे ऊपर वस्त्रों से ढँक दिया था। राजा साहब में वह नग्न था। अपना बड़प्पन सिद्ध करने के उस अवसर को राय साहब छोड़ न सके। जैसे लज्जित होकर बोले -- लेकिन यह बीसवीं सदी है, बारहवीं नहीं। रुद्रपाल के ऊपर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, मैं नहीं कह सकता; लेकिन मानवता की दृष्टि से ....
राजा साहब ने बात काटकर कहा -- आप मानवता लिये फिरते हैं और यह नहीं देखते कि संसार में आज मनुष्य की पशुता ही उसकी मानवता पर विजय पा रही है। नहीं, राष्ट्रों में लड़ाइयाँ क्यों होतीं? पंचायतों से मामले न तय हो जाते? जब तक मनुष्य रहेगा, उसकी पशुता भी रहेगी।
छोटी-मोटी बहस छिड़ गयी और विवाह के रूप में आकर अन्त में वितंडा बन गयी और राजा साहब नाराज़ होकर चले गये। दूसरे दिन राय साहब ने भी नैनीताल को प्रस्थान किया। और उसके एक दिन बाद रुद्रपाल ने सरोज के साथ इंगलैंड की राह ली। अब उनमें पिता-पुत्र का नाता न था। प्रतिद्वन्द्वी हो गये थे। मिस्टर तंखा अब रुद्रपाल के सलाहकार और पैरोकार थे। उन्होंने रुद्रपाल की तरफ़ से राय साहब पर हिसाब-फ़हमी का दावा किया। राय साहब पर दस लाख की डिग्री हो गयी। उन्हें डिग्री का इतना दुःख न हुआ जितना अपने अपमान का। अपमान से भी बढ़कर दुःख था जीवन की संचित अभिलाषाओं के धूल में मिल जाने का और सबसे बड़ा दुःख था इस बात का कि अपने बेटे ने ही दग़ा दी। आज्ञाकारी पुत्र के पिता बनने का गौरव बड़ी निर्दयता के साथ उनके हाथ से छीन लिया गया था।

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